अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
रोज़ अपना ही तमाशा नहीं देखा जाता
सैर-ए-हस्ती में कहीं और भी घूम आते हैं
एक ही शहर-ए-तमन्ना नहीं देखा जाता
ख़ुंकी-ए-लम्स-ए-रिफ़ाक़त ही बहुत होती है
धूप हमदम हो तो साया नहीं देखा जाता
खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
आने वाले का इरादा नहीं देखा जाता
आसमानों में भी इक ऐसी कमाँ है जिस से
कोई ख़ुश-रंग परिंदा नहीं देखा जाता
अपने होंटों पे बिछा देता हूँ इक मौज-ए-सराब
प्यास ऐसी है कि दरिया नहीं देखा जाता
फ़र्त-ए-वहशत में कहीं और निकल आया हूँ
घर का रस्ता है कि सहरा नहीं देखा जाता
मेरी जानिब भी तो रुख़ कर कभी ऐ शाह-ए-जमाल
आईना मुझ से ज़ियादा नहीं देखा जाता
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