मौत बर-हक़ है तो फिर मौत से डरना कैसा
एक हिजरत ही तो है नक़्ल-ए-मकानी ही तो है
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कोई है बाम पर देखा तो जाए
कुछ और हो गई दुश्वार नेक-ओ-बद की तमीज़
निगहबान-ए-चमन अब धूप और पानी से क्या होगा
यहाँ के लोग हैं बस अपने ही ख़याल में गुम
अपने दुखों का हम ने तमाशा नहीं किया
घर में बैठूँ तो शनासाई बुरा मानती है
मैं हबीब हूँ किसी और का मिरी जान-ए-जाँ कोई और है
ग़म की दीवार को मैं ज़ेर-ओ-ज़बर कर न सका