घर में बैठूँ तो शनासाई बुरा मानती है
घर में बैठूँ तो शनासाई बुरा मानती है
बाहर आ जाऊँ तो तन्हाई बुरा मानती है
मेरी नादानी दिखाती है करिश्मे जब भी
साहब-ए-वक़्त की दानाई बुरा मानती है
माह-ओ-अंजुम की सवारी पे निकलता हूँ जब
दश्त-ए-अफ़्लाक की पहनाई बुरा मानती है
बहर की तह में उतरता हूँ ख़ज़ानों के लिए
ये अलग बात कि गहराई बुरा मानती है
जब मिरे ज़ख़्म महकते हैं तो 'तारिक़'-साहब
इब्न-ए-दौराँ की मसीहाई बुरा मानती है
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