ग़म की दीवार को मैं ज़ेर-ओ-ज़बर कर न सका
ग़म की दीवार को मैं ज़ेर-ओ-ज़बर कर न सका
इक यही मा'रका ऐसा था जो सर कर न सका
दिल वो आज़ाद परिंदा है कि जिस को मैं ने
क़ैद करना तो बहुत चाहा मगर कर न सका
दूर इतनी भी न थी मंज़िल-ए-मक़्सूद मगर
यूँ पड़े पाँव में छाले कि सफ़र कर न सका
ज़िंदगी मेरी कटी एक सज़ा के मानिंद
चैन से दुनिया में पल-भर भी बसर कर न सका
आसमाँ पर वो गया क़ल्ब-ए-ज़मीं में उतरा
कौन सा काम है ऐसा जो बशर कर न सका
बात जैसी भी हो तासीर है शर्त-ए-लाज़िम
शे'र वो क्या जो किसी दिल में भी घर कर न सका
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