मैं बाम-ओ-दर पे जो अब साएँ साएँ लिखता हूँ
मैं बाम-ओ-दर पे जो अब साएँ साएँ लिखता हूँ
तमाम शहर की सड़कों की राएँ लिखता हूँ
तवील गलियों में ख़ामोशियाँ उगी हैं मगर
हर इक दरीचे पे जा कर सदाएँ लिखता हूँ
सफ़ेद धूप के तूदे ही जन पे गिरते हैं
इन्ही उदास घरों की कथाएँ मैं लिखता हूँ
हवा के दोष पे रक़्साँ नहीफ़ पत्तों पर
बदलते मौसमों की इत्तिलाएँ लिखता हूँ
मैं झुंझलाहटों पर ज़ब्त कर नहीं सकता
सड़क पे चलते हुए दाएँ बाएँ लिखता हूँ
तिरे ख़ुलूस ने मुझ से वो दुश्मनी की है
तिरे लिए तो मैं अब बद-दुआएँ लिखता हूँ
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