बातिल-ओ-ना-हक़ से उम्मीद-ए-करम करते रहे
बातिल-ओ-ना-हक़ से उम्मीद-ए-करम करते रहे
जो न करना था हमें वो काम हम करते रहे
ज़ब्त कर सकते थे आख़िर ज़ब्त हम करते रहे
काम था जिन का सितम करना सितम करते रहे
ज़िंदगी-भर मुस्कुराए बे-सबब हम दोस्तो
ज़िंदगी-भर ज़ीस्त की तल्ख़ी को कम करते रहे
ऐ क़ज़ा तू देर से आई मगर ख़ुश-आमदीद
उम्र-भर हम याद तुझ को दम-ब-दम करते रहे
उम्र-भर हम ने किया है दूसरों का एहतिराम
या'नी ख़ुद को उम्र-भर हम मोहतरम करते रहे
उम्र पढ़ने लिखने की ग़फ़लत में गुज़री और फिर
ज़िंदगी-भर हाथ अरमान-ए-क़लम करते रहे
क्या नमाज़ें हैं हमारी क्या हमारी बंदगी
खोट निय्यत में रहा और सर को ख़म करते रहे
(588) Peoples Rate This