कभी अपने वसाएल से न बढ़ कर ख़्वाहिशें पालो
वो पौदा टूट जाता है जो ला-महदूद फलता है
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
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मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
कितना बोद है मेरे फ़न और पेशे के माबैन
अब तक मिरे आ'साब पे मेहनत है मुसल्लत
तेरी तो आन बढ़ गई मुझ को नवाज़ कर
मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
बेटे को सज़ा दे के अजब हाल हुआ है
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मिरा जिस्म
दिहात के वजूद को क़स्बा निगल गया
'तनवीर' अब तू हल्क़ से भोंपू का काम ले
शायद यूँही सिमट सकें घर की ज़रूरतें