हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
वो इक़्तिदार में हैं मगर बे-विक़ार हैं
Ahmad Faraz
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Faiz Ahmad Faiz
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Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Anwar Masood
Rahat Indori
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औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना
ग़मों की धूप में बरगद की छाँव जैसी है
मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
उठा लेता है अपनी एड़ियाँ जब साथ चलता है
तेरी तो आन बढ़ गई मुझ को नवाज़ कर
छत की कड़ियाँ जाँच ले दीवार-ओ-दर को देख ले
आज भी 'सिपरा' उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
शायद यूँही सिमट सकें घर की ज़रूरतें
कितना बोद है मेरे फ़न और पेशे के माबैन
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मिरा जिस्म
अब तक मिरे आ'साब पे मेहनत है मुसल्लत