दिहात के वजूद को क़स्बा निगल गया
क़स्बे का जिस्म शहर की बुनियाद खा गई
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जो कर रहा है दूसरों के ज़ेहन का इलाज
बेटे को सज़ा दे के अजब हाल हुआ है
'तनवीर' अब तू हल्क़ से भोंपू का काम ले
ग़मों की धूप में बरगद की छाँव जैसी है
छत की कड़ियाँ जाँच ले दीवार-ओ-दर को देख ले
हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
आज भी 'सिपरा' उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
तेरी तो आन बढ़ गई मुझ को नवाज़ कर
औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना
कभी अपने वसाएल से न बढ़ कर ख़्वाहिशें पालो
अब तक मिरे आ'साब पे मेहनत है मुसल्लत