औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना
उस शख़्स को दामाद भी वैसा ही मिला है
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बेटे को सज़ा दे के अजब हाल हुआ है
हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
तेरी तो आन बढ़ गई मुझ को नवाज़ कर
ग़मों की धूप में बरगद की छाँव जैसी है
मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
छत की कड़ियाँ जाँच ले दीवार-ओ-दर को देख ले
मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
आज भी 'सिपरा' उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मिरा जिस्म
सब की निगाह में तिरे गोदाम आ गए
शायद यूँही सिमट सकें घर की ज़रूरतें