आज भी 'सिपरा' उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
मैं लोहे की नाफ़ से पैदा जो कस्तूरी करता हूँ
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छत की कड़ियाँ जाँच ले दीवार-ओ-दर को देख ले
कभी अपने वसाएल से न बढ़ कर ख़्वाहिशें पालो
ग़मों की धूप में बरगद की छाँव जैसी है
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मिरा जिस्म
दिहात के वजूद को क़स्बा निगल गया
कितना बोद है मेरे फ़न और पेशे के माबैन
जो कर रहा है दूसरों के ज़ेहन का इलाज
मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना
बेटे को सज़ा दे के अजब हाल हुआ है
अब तक मिरे आ'साब पे मेहनत है मुसल्लत