घरों में क़ैद हैं बस्ती के शोरफ़ा
सड़क पर हैं फ़सादी और गुंडे
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अहबाब हो गए हैं बहुत मुझ से बद-गुमान
फ़र्ज़ी क़िस्सों झूटी बातों से अक्सर
फेंकें भी ये लिबास बदन का उतार के
सूरतों के शहर में रौज़न ही रौज़न देख कर
फ़िक्र की आँच में पिघले तो ये मालूम हुआ
सोच का ज़हर न अब शाम-ओ-सहर दे कोई
अपने काँधे पे लिए फिरती है एहसास का बोझ
अपनी सूरत भी कब अपनी लगती है
रोज़ तब्दील हुआ है मिरे दिल का मौसम
ख़ुद से भी इक बात छुपाया करता हूँ
दश्त में जो भी है जैसा मिरा देखा हुआ है