अपनी सूरत भी कब अपनी लगती है
आईनों में ख़ुद को देखा करता हूँ
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क्यूँ न 'तनवीर' फिर इज़हार की जुरअत कीजे
दश्त में जो भी है जैसा मिरा देखा हुआ है
फेंकें भी ये लिबास बदन का उतार के
सूरतों के शहर में रौज़न ही रौज़न देख कर
घरों में क़ैद हैं बस्ती के शोरफ़ा
सोच का ज़हर न अब शाम-ओ-सहर दे कोई
फ़र्ज़ी क़िस्सों झूटी बातों से अक्सर
फ़िक्र की आँच में पिघले तो ये मालूम हुआ
अपने काँधे पे लिए फिरती है एहसास का बोझ
अहबाब हो गए हैं बहुत मुझ से बद-गुमान
ख़ुद से भी इक बात छुपाया करता हूँ