अपने काँधे पे लिए फिरती है एहसास का बोझ
ज़िंदगी क्या किसी मक़्तल की तमन्नाई है
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फ़र्ज़ी क़िस्सों झूटी बातों से अक्सर
ख़ुद से भी इक बात छुपाया करता हूँ
क्यूँ न 'तनवीर' फिर इज़हार की जुरअत कीजे
रोज़ तब्दील हुआ है मिरे दिल का मौसम
अपनी सूरत भी कब अपनी लगती है
फ़िक्र की आँच में पिघले तो ये मालूम हुआ
सोच का ज़हर न अब शाम-ओ-सहर दे कोई
दश्त में जो भी है जैसा मिरा देखा हुआ है
घरों में क़ैद हैं बस्ती के शोरफ़ा
फेंकें भी ये लिबास बदन का उतार के
सूरतों के शहर में रौज़न ही रौज़न देख कर