दोराहा
अजब दोराहे पे आ खड़ा हूँ
इधर तिरे हुस्न की धनक है
उधर अदू की कमीन-गाहों में असलहे की चमक दमक है
उधर तिरी नुक़रई हँसी है
इधर समाअ'त-ख़राश चीख़ों का ज़ेर-ओ-बम है
उधर तिरे तरह जिस्म
ज़िंदगी की हरारतों का नक़ीब बन कर बुला रहा है
इधर अजल नित ज़िंदगी को
थपक थपक कर सुला रहा है
अजब दोराहे पे आ खड़ा हूँ
मैं सोचता हूँ
कि कौन सा साज़-ए-फ़न उठाऊँ
क़लम उठाऊँ कि गन उठाऊँ
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