इस ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे मुझे नाज़ बहुत है
वो शख़्स मिरी जाँ का तलबगार हुआ है
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आज़ादी से नींदों तक
आग की कहानियाँ
सफ़र और क़ैद में अब की दफ़अ' क्या हुआ
शहरों के सारे जंगल गुंजान हो गए हैं
सूरज सारा शहर डराता रहता है
हम दोनों में से एक
आख़िरी कील
कभी बहुत है कभी ध्यान तेरा कुछ कम है
इंतिज़ार
अन-देखी लहरें
बे-रहम शायरों के जुर्म
कोई आवाज़ नहीं