फ़रेब-ए-क़ुर्ब-ए-यार हो कि हसरत-ए-सुपुर्दगी
किसी सबब से दिल मुझे ये बे-क़रार चाहिए
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जब सितारा थक गया
राएगाँ सुब्ह की चिता पर
आज़ादी से नींदों तक
चार साल बा'द
इज़्हार-ए-जुनूँ बर-सर-ए-बाज़ार हुआ है
जान के एवज़
लम्हा-ए-इमकान को पहलू बदलते देखना
जचती नहीं कुछ शाही-ओ-इम्लाक नज़र में
छोटी सी खिड़की है
शहरों के सारे जंगल गुंजान हो गए हैं
मैं अपनी नज़्में वापस लेने को तय्यार हूँ
आख़िरी पत्तियों में