जचती नहीं कुछ शाही-ओ-इम्लाक नज़र में
जचती नहीं कुछ शाही-ओ-इम्लाक नज़र में
हैं ,मेहर-ओ-मह-ओ-अंजुम-ओ-अफ़्लाक नज़र में
इक सोज़-ए-फुसूँ गर है तिरी आँख में पिन्हाँ
है दिल के लिए शौक़ का फ़ितराक नज़र में
क्या ख़ूब कि कश्कोल फ़क़ीरी से है आया
इक गंज-ए-गिराँ-माया तह-ए-ख़ाक-ए-नज़र में
इक ख़्वाब-ए-सहर-साज़ का नायाब ख़ज़ाना
दरयाफ़्त किया है तिरी बेबाक नज़र में
कुछ और कहाँ चाहिए इस दिल को कि अब है
दरिया-ए-ग़म-ए-इश्क़ का पैराक नज़र में
ये ख़्वाब है सय्याद का या इक दिल-ए-वहशी
उभरा है कोई ताइर-ए-चालाक नज़र में
सैलाब शक़ावत के मुक़ाबिल है तुम्हारे
ये फ़स्ल-ए-मोहब्बत ख़स-ओ-ख़ाशाक नज़र में
खाए हैं बहुत मौज-ए-मुख़ालिफ़ के थपेड़े
रक्खा है बहुत बहर-ए-ख़तरनाक नज़र में
मल्बूस में 'अंजुम' के हैं पैवंद के गौहर
क्यूँ ठहरे ये कमख़ाब की पोशाक नज़र में
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