लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है
लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है
वक़्त ख़ुश्बू है बिखरता ही चला जाता है
आबगीनों का शजर है कि ये एहसास-ए-वजूद
जब बिखरता है बिखरता ही चला जाता है
दिल का ये शहर-ए-सदा और ये हसीं सन्नाटा
वादी-ए-जाँ में उतरता ही चला जाता है
अब ये अश्कों के मुरक़्क़े हैं कि समझते हैं नहीं
नक़्श पत्थर पे सँवरता ही चला जाता है
ख़ून का रंग है उस पे भी शफ़क़ की सूरत
ख़ाक-दर-ख़ाक निखरता ही चला जाता है
वापसी का ये सफ़र कब से हुआ था आग़ाज़
नक़्श-ए-पा जिस का उभरता ही चला जाता है
जैसे 'तनवीर' के होंटों पे लिखी है तारीख़
ज़िक्र करता है तो करता ही चला जाता है
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