अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है
अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है
दयार-ए-संग में शीशा का घर बनाता है
जो ज़ख़्म फूल की पत्ती का सह सका न कभी
उस आबला को वो अपनी सिपर बनाता है
फ़ज़ा का बोझ समझता है चाँद सूरज को
वो गर्दनों पे सजाने को सर बनाता है
जहाँ से क़ाफ़िला-ए-वक़्त राह भूला था
उन्हीं सराबों में वो रह-गुज़र बनाता है
तराशता है जिगर वो भी आबगीनों से
ख़ज़फ़ को कासा-ए-अर्ज़-ए-हुनर बनाता है
दिल-ओ-नज़र के फ़ुसूँ उस को रास आ न सके
वो आइनों से गुज़रने को दर बनाता है
ये किस से कहिए कि 'तनवीर' ख़ुद सलीबों को
सुकून-ए-जाँ के लिए हम-सफ़र बनाता है
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