जिहत को बे-जिहती के हुनर ने छीन लिया
जिहत को बे-जिहती के हुनर ने छीन लिया
मिरी निगाह को मेरे ही सर ने छीन लिया
है किस के दस्त-ए-करम में महार-ए-नाक़ा-ए-जाँ
सफ़र का लुत्फ़ ग़म-ए-हम-सफ़र ने छीन लिया
मैं अपनी रूह के ज़र्रे समेटता क्यूँ कर
ये ख़ाक वो थी जिसे कूज़ा-गर ने छीन लिया
भटक रहे हैं जवानी के ना-रसा-लम्हात
बहुत से घर थे जिन्हें एक घर ने छीन लिया
ब-क़ौल-ए-'ग़ालिब'-ए-दाना गुज़र ही जाती ये उम्र
मगर उसे भी तिरे रहगुज़र ने छीन लिया
शिकार-गाह शिकारी के ख़ूँ से रंगीं है
ज़मीं का रिज़्क़ किसी जानवर ने छीन लिया
सफ़र की रूह था वो ज़ौक़-ए-जुस्तुजू 'तालिब'
जिसे चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र ने छीन लिया
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