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ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया - तालिब हुसैन तालिब कविता - Darsaal

ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया

ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया

हज़ार काम किया ''मैं'' को ''हम'' न कर पाया

मुझे सराब में मंज़िल दिखाई देती थी

सो गिरते पड़ते भी रफ़्तार कम न कर पाया

वो दिन भी देखे हैं मैं ने कि एक लुक़्मा-ए-तर

दहन तक आया सुपुर्द-ए-शिकम न कर पाया

मुझे ये दुख कि बिछड़ने का वक़्त था ही नहीं

उसे मलाल कि इज़हार-ए-ग़म न कर पाया

न पास कोह-ए-निदा था न हाथ में बंदूक़

सो लौह-ए-वक़्त पे दुखड़ा रक़म न कर पाया

किसी का मिलना, बिछड़ना और एक दो बातें

तमाम सिलसिला ज़ेब-ए-क़लम न कर पाया

ख़ुदा का अक्स और उस पर जमाल-ए-यार का अक्स

फ़क़ीर मर गया पानी पे दम न कर पाया

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In Hindi By Famous Poet Talib Husain Talib. is written by Talib Husain Talib. Complete Poem in Hindi by Talib Husain Talib. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.