ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
तुम्हारी और मिरी गुफ़्तुगू से ज़िंदा है
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इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
नज़ारगी-ए-शौक़ ने दीदार में खींचा
आहिस्ता-रवी शहर को काहिल न बना दे
यूँ भी तो तिरी राह की दीवार नहीं हैं
बस एक शय मिरे अंदर तमाम होती हुई
तमाम शहर ही तेरी अदा से क़ाएम है
सफ़र ही बस कार-ए-ज़िंदगी है
न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
ख़िरद नहीं है यहाँ बस जुनून का सौदा
तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते
इस तरह तुझे इश्क़ किया है कि ये दुनिया