तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
उसे तो आज भी मुश्किल न था इंकार कर देना
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ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
किस की आँखों का नशा है कि मिरे होंटों को
ख़ुदा वजूद में है आदमी के होने से
इस तरह तुझे इश्क़ किया है कि ये दुनिया
उसे कहाँ हमें क़ैदी बना के रखना था
न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
बस एक शय मिरे अंदर तमाम होती हुई
आहिस्ता-रवी शहर को काहिल न बना दे
सफ़र ही बस कार-ए-ज़िंदगी है
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी