इस तरह तुझे इश्क़ किया है कि ये दुनिया
हम को ही कहीं इश्क़ का हासिल न बना दे
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नज़ारगी-ए-शौक़ ने दीदार में खींचा
वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
फिर क़िस्सा-ए-शब लिख देने के ये दिल हालात बनाए है
तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
बहुत मुश्किल था मुझ को राह का हमवार कर देना
इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
ये तेरा दिवाना रात गए मालूम नहीं क्यूँ पहरों तक
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी
ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते