इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
इक़रार भी करने का मज़ा देख रहे हैं
Rahat Indori
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फिर क़िस्सा-ए-शब लिख देने के ये दिल हालात बनाए है
ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं
तमाम शहर ही तेरी अदा से क़ाएम है
नज़ारगी-ए-शौक़ ने दीदार में खींचा
नई ज़मीनों को अर्ज़-ए-गुमाँ बनाते हैं
न बे-कली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
सवाल क्या है जवाब क्या है
हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
बस एक शय मिरे अंदर तमाम होती हुई
किस की आँखों का नशा है कि मिरे होंटों को
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते