दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी
दर्द-आमेज़ है कुछ यूँ मिरी ख़ामोशी भी
रास आती नहीं मुझ को ये ख़िरद-पोशी भी
कैसी हैरत है कि इक मैं ही न बेहोश रहा
क्या तअज्जुब है कि छाती नहीं मदहोशी भी
याद का कौन सा आलम है कि मैं मरता हूँ
और ज़िंदा है मिरा ख़्वाब-ए-फ़रामोशी भी
किस की आँखों का नशा है कि मिरे होंटों को
इस क़दर तर नहीं कर सकती बला-नोशी भी
मैं किनारा भी करूँ ख़ुद से तो मुमकिन है कहाँ
कि न हो तेरे तअल्लुक़ से हम-आग़ोशी भी
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