बस एक शय मिरे अंदर तमाम होती हुई
बस एक शय मिरे अंदर तमाम होती हुई
मिरी हिकायत-ए-जाँ सुस्त-गाम होती हुई
मैं रात अपने बदन की सदा से लड़ता हुआ
और इस की ख़ामुशी महव-ए-कलाम होती हुई
ये हिर्स-ए-शब है या कोई हवा-ए-हस्ती है
जो रोज़ रोज़ है यूँ बे-लगाम होती हुई
बदी बड़ी ही अदा से जहाँहस्ती में
ख़राब होते हुए नेक-नाम होती हुई
अजीब रंग बदलती हुई मिरी दुनिया
ब-ज़ेर-ए-शाम-ए-सफ़र नील-गाम होती हुई
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