तिलिस्म-ए-इश्क़ था सब उस का साथ होने तक
तिलिस्म-ए-इश्क़ था सब उस का साथ होने तक
ख़याल-ए-दर्द न आया नजात होने तक
मिला था हिज्र के रस्ते में सुब्ह की मानिंद
बिछड़ गया था मुसाफ़िर से रात होने तक
अजीब रंग ये बस्ती है उस की नगरी भी
हर एक नहर को देखा फ़ुरात होने तक
वो इस कमाल से खेला था इश्क़ की बाज़ी
मैं अपनी फ़तह समझता था मात होने तक
है इस्तिआरा ग़ज़ल उस से बात करने का
यही वसीला है अब उस से बात होने तक
मैं उस को भूलना चाहूँ तो क्या करूँ 'आदिल'
जो मुझ में ज़िंदा है ख़ुद मेरी ज़ात होने तक
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