जी में आता है कि चल कर जंगलों में जा रहें
जी में आता है कि चल कर जंगलों में जा रहें
नित-नए मौसम के भी हमराह वाबस्ता रहें
आती जाती रुत को देखें अपने चश्म ओ गोश से
मौसमों के वार सह कर भी यूँही ज़िंदा रहें
फूल फल पौदे परिंदे हमदम ओ दम-साज़ हों
इन में बस्ते ही भले लेकिन न यूँ तन्हा रहें
शहर के दीवार-ओ-दर हर इक से हैं ना-आश्ना
शहर में रहते हुए क्यूँकर न बेगाना रहें
बे-मुरव्वत है ज़माना उस का शिकवा क्यूँ करें
अपने अंदर के मकीं का बन के हम-साया रहें
जिस्म के अंदर ग़मों की आँधियाँ चलती रहें
ज़ाहिरी सूरत में सब चेहरे तर-ओ-ताज़ा रहें
देखते ही जिस को सब महरूमियाँ काफ़ूर हों
दिल में तूफ़ाँ से उठें चेहरे मगर सादा रहें
मसअला ये भी तो है इस अहद का ऐ जान-ए-जाँ
क्यूँ निछावर जाँ करें किस के लिए ज़िंदा रहें
उड़ते लम्हों को अगर क़ाबू में करना है 'सईद'
भागने को हर घड़ी हर वक़्त आमादा रहें
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