उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
ख़ुद अपनी शोहरत पे रश्क आए सुख़न में ऐसा कमाल दे दे
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हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
मिरी तवज्जोह फ़क़त मिरे काम पर रहेगी
वो कम-सुख़न न था पर बात सोच कर करता
तुम कोई इस से तवक़्क़ो' न लगाना मरे दोस्त
ख़ुशी ज़रूर थी 'तैमूर' दिन निकलने की
वफ़ा का ज़िक्र छिड़ा था कि रात बीत गई
ये लोग करते हैं मंसूब जो बयाँ तुझ से
एक मंज़िल है एक जादा है
नहीं उड़ाऊँगा ख़ाक रोया नहीं करूँगा
वो जो मुमकिन न हो मुमकिन ये बना देता है