तुझे मैं अपना नहीं समझता इसी लिए तो
ज़माने तुझ से मैं कोई शिकवा नहीं करूँगा
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मकाँ से होगा कभी ला-मकान से होगा
तुम कोई इस से तवक़्क़ो' न लगाना मरे दोस्त
मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
ये लोग करते हैं मंसूब जो बयाँ तुझ से
हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
ज़िंदगी भर की रियाज़त मिरी बे-कार गई
वो कम-सुख़न न था पर बात सोच कर करता
ख़ुशी ज़रूर थी 'तैमूर' दिन निकलने की
वो जो मुमकिन न हो मुमकिन ये बना देता है