फिर जो करने लगा है तू व'अदा
क्या मुकरने का फिर इरादा है
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ये लोग करते हैं मंसूब जो बयाँ तुझ से
ज़िंदगी भर की रियाज़त मिरी बे-कार गई
हिज्र बख़्शा कभी विसाल दिया
सफ़र में होती है पहचान कौन कैसा है
बहाऊँगा न मैं आँसू न मुस्कराउँगा
हम दुनिया से जब तंग आया करते हैं
मकाँ से होगा कभी ला-मकान से होगा
मोती नहीं हूँ रेत का ज़र्रा तो मैं भी हूँ
मैं ने बख़्श दी तिरी क्यूँ ख़ता तुझे इल्म है
सूरज के उस जानिब बसने वाले लोग
तुझे मैं अपना नहीं समझता इसी लिए तो
वो जो मुमकिन न हो मुमकिन ये बना देता है