मिरी तवज्जोह फ़क़त मिरे काम पर रहेगी
मैं ख़ुद को साबित करूँगा दावा नहीं करूँगा
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नहीं उड़ाऊँगा ख़ाक रोया नहीं करूँगा
ज़िंदगी जंग है आसाब की और ये भी सुनो
मकाँ से होगा कभी ला-मकान से होगा
उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे
मुझ को कहानियाँ न सुना शहर को बचा
बहाऊँगा न मैं आँसू न मुस्कराउँगा
वफ़ा का ज़िक्र छिड़ा था कि रात बीत गई
तुझे मैं अपना नहीं समझता इसी लिए तो
वो कम-सुख़न न था पर बात सोच कर करता
हिज्र बख़्शा कभी विसाल दिया
सूरज के उस जानिब बसने वाले लोग