वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
वो पेड़ मुझ से कोई बात क्यूँ नहीं करता
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मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
अपनी मस्ती में बहता दरिया हूँ
इस लिए रौशनी में ठंडक है
बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
तू ने क्या क़िंदील जला दी शहज़ादी
पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
इक हवेली हूँ उस का दर भी हूँ