तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
समुंदरों से अकेले में बात करनी है
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कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
इक हवेली हूँ उस का दर भी हूँ
इस एक डर से ख़्वाब देखता नहीं
तू ने क्या क़िंदील जला दी शहज़ादी
दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
ये एक बात समझने में रात हो गई है
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को