इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरज़ी है मुझे
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वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी
पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
ये एक बात समझने में रात हो गई है
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
तू ने क्या क़िंदील जला दी शहज़ादी
अपनी मस्ती में बहता दरिया हूँ
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है