ये तय हुआ है कि शेर ओ अदब के पैमाने
हमारे शहर का इक यक-फ़ना ही तय करेगा
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फिर उस की याद ने दस्तक दिल-ए-हज़ीं पर दी
ला-यख़ुल
मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है
तिरी गली में गए कितने माह ओ साल हुए
चमन इतना ख़िज़ाँ-आसार पहले कब हुआ था
मह-ओ-अंजुम ने क़बा की तो तुम्हारे लिए की
बहार अब के जो गुज़री तो फिर न आएगी
बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं
मैं कहाँ और कहाँ शाएरी मैं ने तो फ़क़त
इसे मैं और ये मेरा असा ही तय करेगा