ये जो माज़ी की बात करते हैं
सोचते होंगे हाल से आगे
Gulzar
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हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था