तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
अब हवा के दोश पर दीवा रखा है
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मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
इक वहशत सी दर आई है आँखों में
ये जो माज़ी की बात करते हैं