तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
मैं सच जो नहीं कहता लहजे का असर जाता
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Habib Jalib
Gulzar
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
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बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
ये जो माज़ी की बात करते हैं
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है