सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
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इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
ये जो माज़ी की बात करते हैं
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
जो बहुत बे-क़रार रखते थे
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ