रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो
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ये जो माज़ी की बात करते हैं
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
इक वहशत सी दर आई है आँखों में
हर्फ़
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है