मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
सोचता हूँ विसाल से आगे
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मैं उस की मोहब्बत से इक दिन भी मुकर जाता
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
इक वहशत सी दर आई है आँखों में
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो