मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
एक सहरा है मुब्तला मुझ में
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इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
ये जो माज़ी की बात करते हैं
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
हर्फ़
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
इक वहशत सी दर आई है आँखों में