जो बहुत बे-क़रार रखते थे
हाँ वही तो क़रार के दिन थे
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ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
हर्फ़
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
मैं उस की मोहब्बत से इक दिन भी मुकर जाता
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
ये जो माज़ी की बात करते हैं