इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
देखो कितनी सच्चाई है आँखों में
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मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
हर्फ़
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
इक वहशत सी दर आई है आँखों में
हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ