बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
अब तक उस की गहराई है आँखों में
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हर दर्द की दवा भी ज़रूरी नहीं कि हो
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
इक वहशत सी दर आई है आँखों में
मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
ये जो माज़ी की बात करते हैं
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
मौसम-ए-गुल बहार के दिन थे
इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ये जो शीशा है दिल-नुमा मुझ में
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो