क्या शय है खींच लेती है शब को सर-ए-फ़लक
फिर सुब्ह जोड़ती है दोबारा ज़मीन से
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तन्हा कर के मुझ को सलीब-ए-सवाल पे छोड़ दिया
फ़ुरात-ए-चश्म पे है कर्बला की तुग़्यानी
ख़ामोश भी रह जाए और इज़हार भी कर दे
शहर को चोट पे रखती है गजर में कोई चीज़
पहाड़ों को बिछा देते कहीं खाई नहीं मिलती
इक परेशानी अलग थी और पशेमानी अलग
मिला किसी से न अच्छा लगा सुख़न इस बार
लब-ए-मंतिक़ रहे कोई न चश्म-लन-तरानी हो
वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं
घने अरमान गाढ़ी आरज़ू करने से मिलता है
अव्वल वही सैराब था सानी भी वही था