मिट गए हाए मकीं और मकान-ए-देहली
मिट गए हाए मकीं और मकान-ए-देहली
न रहा नाम को भी नाम-ओ-निशान-ए-देहली
सहमे सहमे न रहें क्यूँकि मुक़ीमान-ए-फ़लक
कि फ़लक है हदफ़-ए-तीर-ए-फ़ुग़ान-ए-देहली
हम तो इंसान हैं जी क्यूँकि रहे बिन रोए
कि फ़रिश्ते भी हुए मर्सिया-ख़्वान-ए-देहली
जैसे फ़ारस में ख़ुलासा है ज़बान-ए-शीराज़
वैसी ही हिन्द में है पाक ज़बान-ए-देहली
दूर से देख के हो क्यूँकि यक़ीं दिल्ली का
आ के दिल्ली में हो जब यूँ ही गुमान-ए-देहली
फ़र्त-ए-काहीदगी-ए-दर्द से यारब अब तो
सब के सब हो गए हैं पीर जवान-ए-देहली
इस की वीरानी में इक बात है देखो अब तक
मिट गए पर भी तो बाक़ी रही आन-ए-देहली
जसद-ए-चर्ख़ न अंजुम से बने आबला-वार
गर न हो दरपय बर्बादी-ए-शान-ए-देहली
बस-कि हंगामा-तलब था ये वहाँ पहले से
फ़ित्ना-ए-हश्र भी होवेगा मियान-ए-देहली
जो मकीं रह गए बे-गोर-ओ-कफ़न मर मर कर
ढाँपने पर वो गिरे उन का मकान-ए-देहली
'ग़ालिब'-ओ-'साक़िब'-ओ-'सालिक' ही नहीं हैं ग़मगीं
'कौकब'-ए-ख़स्ता भी करता है फ़ुग़ान-ए-देहली
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